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नुक़्ता / अनामिका अनु

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<poem>
वह अजीब था
कवि ही होगा
धूप की सीढ़ी पर चढ़ता था
रात ढले
चाँदनी के साथ उतरता था
उस नदी के किनारे
जिसके पेट में थी कई और नदियाँ

वह कहता था
चलो दर्पण के द्वार खोलते हैं
अनुवाद करते हैं
आँखों की भाषा में

वैसे ओठों की लिपि भी बहुत सुंदर है
तुम्हें शायद आती नहीं होगी

मृत्यु के परे
एक सुनसान रात में
उसकी बालों की खुली टहनियों पर
सुगबुगा उठी प्रणय उत्सुक चिड़िया

उसके चेहरे पर जाग उठी मुस्कान
धीमे से नदी की देह में उतरा चाँद
रात के तीसरे पहर कोई राग मालकौंस गा रहा था
</poem>
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