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|रचनाकार=रश्मि विभा त्रिपाठी
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<poem>

तुम बनकरके पति
मेरी गति, लय, यति
अपने हाथ में लेने आए
मैंने श्रद्धा के फूल
तुम्हारे पाँव में चढ़ाए
मन- मंदिर के
ओ तथाकथित देवता!
तुम ऐंठे रहे
बैठे रहे
अहम् की बेदी पर
यह संकल्प करवाने को
कि मैं आजीवन पूजूँ तुम्हें
सहूँ अपमान
मानकरके वरदान
माथे लगा लूँ
तुम जब- तब जितने भी कहो
उन सारे अपशब्दों को
प्रसाद जान
तुम्हारा करती रहूँ आह्वान
विशुद्ध भाव से
सारी की सारी प्रताड़नाएँ
झेलती जाऊँ चाव से
अपना जन्म सार्थक समझ लूँ
तुम्हारे दिए हर घाव से
तुम्हारी लम्बी आयु के लिए
निर्जल व्रत करूँ
भूख- प्यास से मरूँ
देवता कब जन्मते- मरते हैं?
वे तो केवल अवतार लिया करते हैं
सृष्टि की कल्याण- कामना से!
संभवतः मैंने जो सुना
असत्य है, भ्रम है
तुम कहते हो ना
मुझमें बुद्धि कम है
सच- सच बताओ!
तुमने जानबूझकर छोड़ा है मुझे
वन- वन भटकने को
किसी अमंगल की चाह से
ताकि कोई दूसरी भक्तिन मिले तुम्हें
देवता तो सभी को शरण देते हैं
मंगल करते हैं
शरणागत की झोली में
अलौकिक आनन्द भरते हैं
तुमने तो दुख ही दिए हैं मुझे
तुम ध्यान रखना
स्वर्ग से यदि देवता तुम्हें देखेंगे
तो रोष ही उगलेंगे
नियति के नाम पर
वे निश्चित तुम्हें भी छलेंगे
जैसे तुमने मुझे छला
सात जन्मों तक
साथ निभाने का वचन देकर
नियति का लेख तुम निश्चित पढ़ोगे
क्या उसके आगे भी
खुद को बचाने के लिए
कोई झूठी कहानी गढ़ोगे?
बुरा मत मानना
तुम कहते हो ना
कि मैं बकवास करती हूँ
मगर, सुनो
सच कहने से मैं कब डरती हूँ?
हाँ! मैंने की है आज
तुम्हारी अवमानना
क्योंकि जरूरी है
तुम्हारे लिए ये जानना
कि
तुम्हारे विवेक ने समझी ही नहीं कभी
मेरे भावों की व्याख्या
मैं कब तलक
प्रस्तुत करती आख्या
कि मुझे चाहिए था एक साथी
जिसके संग मैं बाँट पाती
अपने सारे सुख- दुख
एक- एक आशा, आकांक्षा
मुझसे मानव- सा बर्ताव करती
जिसकी मानवीयता
और फिर वह स्वतः बन बैठता
एक दिन मेरे मन- मन्दिर का देवता।
</poem>

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