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|रचनाकार=दिनेश शर्मा
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<poem>
धर्म स्थापित करने को अब
कदम बढ़ाना होगा
हे गिरधारी कलियुग में फिर
तुमको आना होगा
व्याकुल है संतप्त देवकी
पग पग पर पहरा है
वासुदेव का इंतज़ार भी
सालों से ठहरा है
इन हतभागों के मन का
संताप मिटाना होगा
हे गिरधारी
क्रूर कंस का शासन अब तो
घर घर पैठ गया है
मार कुंडली सर्प लोभ का
मन में बैठ गया है
काम क्रोध से त्रस्त धरा को
मुक्त कराना होगा
हे गिरधारी
जिसकी करुणा और व्यथा से
नहीं कोई भी आकुल
दर-दर भटके आज सुदामा
भूखा प्यासा व्याकुल
तेरे चरणों के बिन केशव
कौन ठिकाना होगा
हे गिरधारी
आज कपट से सारे अवसर
करता रहता दोहन
दुर्योधन के मन की कालिख
नहीं मिटी है मोहन
कैसे हो कल्याण धरा का
आज बताना होगा
हे गिरधारी
शिशुपालों के अपशब्दों से
दूषित कुदरत सारी
जयद्रथ के कुकृत्य हुए हैं
मर्यादा पर भारी
शकुनि की चालों को गोविंद
बदल दिखाना होगा
हे गिरधारी
शिशुपाल के साथ जरासंध
फिर से हमलावर है
व्यथित हो रहे विदुर इधर हैं
उधर भीष्म को डर है
अश्वत्थामा हुआ धृष्ट है
शस्त्र चलाना होगा
हे गिरधारी
फूलों की होली में कान्हा
नहीं बसी पावनता
रंगों में अब प्रेम नहीं है
मन में है चंचलता
जला वासना को अग्नि में
धर्म बचाना होगा
हे गिरधारी
द्वापर की महाभारत अच्युत
अब तक चली हुई है
चीरहरण के भय से जग में
द्रौपद डरी हुई है
राखी का ऋण माधव तुमको
आन चुकाना होगा
हे गिरधारी
</poem>
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