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|रचनाकार=दिनेश शर्मा
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<poem>
बहारें छा ही जाती हैं जहाँ ख़ुशहाल हो बेटी
करें ऊँचा बहुत मानो पिता के भाल को बेटी
ख़ुशी थी धाम में कैसी पिता ने राज़ तब जाना
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी
कहें दादा सदा रखती कुलों की लाज को बेटी
वो माँ की मान बातों को पिता की ढाल हो बेटी
सताती हैं बहुत दिन तक पिता को याद बेटी की
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी
सभी का ध्यान रखती है महीनो साल जो बेटी
सदा करती है घर की ठीक से पड़ताल वह बेटी
दुलारा था बहुत जिसको पराया आज कर डाला
कि जब घर से विदा होकर चली ससुराल को बेटी
</poem>