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16:32, 24 दिसम्बर 2024 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=गरिमा सक्सेना
|अनुवादक=
|संग्रह=बार-बार उग ही आएँगे
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<poem>
एक पुराने स्वेटर से
धागे उधेड़ कर
बुनने बैठ गयी हूँ एक नया मैं स्वेटर
फिर से इसमें कसे हुए फंदे डालूँगी
नये तरह के नये डिज़ाइन भी ढालूँगी
नये स्वप्न, स्फूर्ति नयी, कुछ रंग नये भी
थकी हुई आँखों में ज्यों तितली पालूँगी
लौटेगा वैसी ही फिर
गर्माहट लेकर
बुनने बैठ गयी हूँ एक नया मैं स्वेटर
अरसे से था वही पुराना ताना-बाना
पड़ा रहा बदलावों से होकर अनजाना
यादों की गठरी में कबसे बँधा हुआ था
था अतीत के पन्नों ने केवल पहचाना
सोचा इसको नया रूप
दूँगी अब बेहतर
बुनने बैठ गयी हूँ एक नया मैं स्वेटर
इसके साथ स्वयं को आज बदलना होगा
नया सीखना, ढलना और सँभलना होगा
ख़ुद को भी अनुकूलित करना होगा मुझको
साथ समय के मुझे निरंतर चलना होगा
प्रस्तुत होना है मुझको भी
उन्नत होकर
बुनने बैठ गयी हूँ एक नया मैं स्वेटर।
</poem>