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लक्ष्य / नेहा नरुका

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<poem>
ऐसा लगता है, जैसे मेरा जीवन
अब जीवन नहीं रहा
आज़ादी की लड़ाई बन चुका है
मैं जो भी कर रही हूँ उस सबका,
बस, एक ही लक्ष्य है —’आज़ादी'


तभी तो मुझे गुप्त रणनीति तैयार करनी पड़ती है
अपनी चमड़ी मोटी करके रखनी पड़ती है
कभी भी खानी पड़ जाती हैं लाठियाँ
विचित्र-विचित्र समझौते करने पड़ते हैं
इतने विचित्र कि अगर बता दूँ
तो हँसी के मारे मर जाएँ आप

कभी ख़ाली घर में बम फोड़ने पड़ते हैं
कभी कुछ दिनों के लिए
जेल की चहारदीवारी में क़ैद भी रहना पड़ता है

मुझे पता है, मुझे कभी भी
फाँसी के फंदे पर लटकाया जा सकता है
कभी भी खिलाया जा सकता है सल्फ़ास
आज़ादी के दुश्मनों की बन्दूक का छर्रा
कभी भी भेद सकता है मेरे माथे को
इसलिए मैं अन्दर ही अन्दर
मृत्यु की तैयारी भी करती रहती हूँ
ताकि जब आज़ादी के लिए जान देने की बारी आए
तो कायरता का माफ़ीनामा न लिख बैठूँ

आज़ादी का यह रास्ता जैसे
यातनाओं से होकर निकला है
वरना अब तक गुज़रे रास्ते अंगारों से क्यों पटे होते ?
काश ! मेरे पास डेढ़ करोड़ तलवे होते
तो मैं इन अंगारों को रौन्द देती !
पर मेरे पास तो दो ही तलवे हैं
जो काफ़ी हद तक जल चुके हैं

अपने जले हुए तलवों पर ख़ुद ही मरहम लगाकर
बार-बार चलना पड़ता है।
</poem>
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