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18 जनवरी {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋचा दीपक कर्पे
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
रोज सुबह खिलने वाले
नोबची के फूलों की तरह
हो गई है ज़िंदगी
सुबह की गुनगुनी धूप में
आँखे खोल मुस्कुराती है,
चढ़ती धूप के साथ खिल जाती है,
हर तरफ रंग बिखेर
खिलखिलाती है,
ऊर्जा और उत्साह से
लबरेज नज़र आती है!
और फिर
शाम ढ़लते-ढ़लते
तुम्हारी यादों की परछाइयों में
सिमट जाती है
बेरंग मुरझाई-सी
निढाल होकर सो जाती है...!
अल सुबह फिर खिल उठने के लिए...
</poem>