इक और बला ने घेर लिया, पहले से घिरे थे बलाओं में
इज़हारेइज़ हारे-मोहब्बत कर न सकेसका, हम जिनसे मैं जिससे मोहब्बत करते थेकरता थाडरते थे डरता था के वो क्या सोचेंगेसोचेगा, गिर जाएं जाऊं न उनकी उसकी निगाहों में
गुलशन में गुलों से क्या शिकवा, काँटे भी तो मुझपर हंसते हैं
अब कोई हमारा कोई नहीं, अब कोई हमारा कोई 'रक़ीब'
ख़ुशियों से बहुत डर लगता है, रहते हैं ग़म की पनाहों में
</poem>