Changes

{{KKCatGhazal}}
<poem>
 
छोड़ा था जहाँ मुझको उसी जा पे खड़ा हूँ
हर लमहा तेरे रस्ता तिरे आने की रह का वहीं देख रहा हूँ
क्यों बादे-सबा ख़ुशबू चुरा लेती है मेरी
काटे नहीं कटती हैं ये तन्हाई की रातें
एहसास की शिद्दत को मैं अब मगर जान चुका गया हूँ
बनकर जो उड़ा भाप तो बरसात में लौटा
इक बूँद हूँ पानी की समन्दर समुन्दर में मिला हूँ
हर रोज़ यहाँ मरने गाम पे छलने को जीना कहे दुनियायहां लोग खड़े हैं
ये मुझको ही मालूम है मैं कैसे जिया हूँ
हँस-हँस के सितम क्यों नहीं, अपनों के मैं झेलूंझेले हैं मुसलसल"रिश्तों की अज़ीयत अज़िय्यत का सफ़र काट रहा हूँ"
फ़ितरत में रक़ाबत की 'रक़ीब' आई न कुछ बात
मैं फ़ेलो फ़ेल-ओ-अमल में यहाँ बहुतों से भला हूँ 
</poem>
481
edits