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<poem>
दे हवा, धरती, गगन विश्वास।
हर जगह है ज़िन्दगी की आस।

भागते हम ही सदा हैं दूर,
प्रेम है सबको बुलाता पास।

झेलना है कष्ट चारों ओर,
बन गए जब आदतों के दास।

कृष्ण-सा लें योग को जब साध,
तब रचाएँ गोपियों संग रास।

थी जहाँ से न्याय की उम्मीद,
है वहीं अब जुर्म का संडास।

लोग इतने हो गए हैं शुष्क,
सह न पाते हैं ज़रा परिहास।

“गीतिका” लिखते रहें हम नित्य,
बन गयी है यह विधा कुछ खास।
</poem>
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