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<poem>
लाडो जब छोटी थी
पेड़ पर चढ़ना जानती थी

लाडो को पसन्द थे
नीम, बबूल और शीशम के पेड़
जिन पर गोंद का मिलना ऐसा था
जैसे किसी ख़ज़ाने का मिल जाना

पर जब से लाडो जवान हुई है
सूख गई है उसकी बाढ़
यह सूखापन सबसे ज़्यादा दिखता है उसके चेहरे पर
उसके दोनों गाल इस तरह से चिपक गए हैं हड्डियों से
जैसे चिपक जाती है तवे पर कोई रोटी,
(बहुत अधिक आँच के कारण)
लाडो को दिल्ली में देखकर लगता है जैसे
अफ़्रीका के जंगलों से निकला एक ग़ुलाम
अमेरिकी सभ्यता देखकर हतप्रभ हो

लाडो जानती है
उसके शरीर को दूध नहीं, गोंद लगता है
और दूध कितना नुक़सानदेह
मुद्दा ये नहीं है कि गोंद कितना फ़ायदेमन्द है
मुद्दा ये है कि लाडो आज गोंद का स्वाद
और पेड़ पर चढ़ना दोनों भूल गई है

इस कविता का मक़सद उसे बस यह याद दिलाना है
कि उसकी जगह बिना खिड़‌कियों वाले इस कमरे से
कई हजार किलोमीटर दूर अलमारी में रखी
एलबम में मुस्कुराती उस लड़की के पीछे
खड़े पेड़ों के ऊपर है ।
</poem>
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