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बक्सा / नेहा नरुका

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<poem>
एक छोटी बच्ची इन दिनों मुझे बहुत तंग कर रही है
नहीं ! वह मेरे घर में नहीं है
न पड़ोस में
उसका सम्बन्ध मेरे किसी परिचित या अपरिचित से भी नहीं है
वह मेरे अंदर रहती है
यूँ तो सालों से रह रही है अंदर वह पर उसकी उदण्डता नई नई घटना है

उसके पास सात रंगों की सात फ़्रॉकें हैं
जिन्हें पहनकर वह उछल-उछल कर चलती है
एक बूढ़ी झुर्रियों से सने चेहरे वाली औरत छड़ी लेकर उसके पीछे पीछे भाग रही है
उसकी टांगों पर छड़ी के नीले निशान हैं
पर वह न उछलना बंद करती है, न कूदना, न हँसना और न किस्म किस्म के मुँह बनाकर चिढ़ाना

अज़ीब बच्ची है लगता है जैसे इसे किसी का डर नहीं
किसी को भी कुछ बोल देती है
किसी को भी टोक देती है
राह चलते किसी राहगीर को ही रोक देती है
न जाने कितनी बार किसको किसको उसने परेशानी में डाल दिया है

उसके पास बातों का एक बक्सा है जो हर वक़्त रहता है खुला
मैं कहती हूँ उससे लटका दे इसमें ताला
और थोड़ी परिपक्व हो जा !
मगर वह मेरी कही मानती ही नहीं
उदण्ड बच्चे कही कब मानते है
जो वह मेरी माने ।
</poem>
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