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23 मार्च {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=संतोष श्रीवास्तव
|अनुवादक=
|संग्रह=यादों के रजनीगंधा / संतोष श्रीवास्तव
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
नींद मेरी पलकों पर
मंडरा रही है
उसे लगता है
उसके आते ही
मैं सो जाऊँगी
वह क्यों नहीं जान पाती
कि मैं जागती हूँ
उन अभिशप्त दिशाओं में पलती
एक पूरी की पूरी कौम के लिए
जिनके लिये पेट भर रोटी,
बदन भर कपड़ा
आँख भर नींद सपना है
ये सपने रहन रखे हैं
झूठे सियासी वादों के पास
जिनकी सत्ता की तक़दीर
बदल देते हैं
ये लाचार सपने
मैं नींद को ललकारती हूँ
शायद वह
मेरी ललकार से जाग जाए
और पहुँच जाए
अभावों की
जागती पलकों पर
</poem>