1,442 bytes added,
23 मार्च {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह
|अनुवादक=
|संग्रह=नवगीत/ प्रताप नारायण सिंह
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
सच के तो हैं कम ही साथी
सच के तो हैं कम ही साथी
अधिक झूठ के संगी हैं
सभी जानते हैं सच क्या है
किन्तु बहुत लाचारी है
भौतिकता की अंध दौड़ में
स्वार्थ सत्य पर भारी है
स्याह भले कर्मों के चेहरे
पर सपने सतरंगी हैं
बात दूसरों की जब आए
गगन उठा तब लेते हैं
कहकर "नमक बराबर", अपना
झूठ पचा सब लेते हैं
सर्वत्र प्रचुरता मिथ्या की
सच की काफी तंगी है
चौसर के चौखाने में सब
नित्य गोटियाँ फिट करते
छल खरीदते, शुचिता देकर
बेशर्मी के पग धरते
चीर हरण कर डाला खुद का
छवियाँ सब अधनंगी हैं
</poem>