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30 मार्च {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=पुष्पराज यादव
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मुझे एक ‘किस’ से नवाज कर कोई चाँद तारों में खो गया
मेरे तिश्ना होठों की डोर में कोई अब्र बूँदें पिरो गया
मेरे गिर्द-ओ-शबाब की वह अजीब आग सुलग उठी
कि जो करना चाहा हुआ नहीं जो न करना चाहा वह हो गया
सर-ए-शाम ही किसी डाल पर जो उतर के आई थी चाँदनी
वो दरख़्त था किसी राह का उसे बाँह भरते ही सो गया
कोई फूल-चेहरा मेरी नज़र के क़रीब आके गुजर गया
या नसीब का कोई खेल था मुझे आँसुओं में डुबो गया
मेरे होंठ चूमे गले लगा कोई ज़ख्म जैसे वह भर गया
मेरे कैनवस पर जमी हुई कोई धूल थी जिसे धो गया
</poem>