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<poem>
जहाँ देखूँ वहीं वह अपना चेहरा डाल देता है
मेरी आँखों पर ज़ालिम ऐसा पर्दा डाल देता है

बहुत जब मिन्नतें करता है बूढ़ा बाप मिलने की
तो उसके खाते में कुछ पैसे बेटा डाल देता है

अगर सर पर उधारी है तो हरदम याद ये रखना
दरारें आज हर रिश्ते में पैसा डाल देता है

नजर आता है ख्वाबों तक में बस सय्याद तब हमको
हमारे जेहन में जब कोई पिंजरा डाल देता है

उसी छत पर उतरते हैं मुहब्बत के परिंदे भी
जहाँ पर कोई उनको आबो दाना डाल देता है

मेरे घर पर जो आता था कभी मेरा सगा बनकर
वही अब भाई भाई में ही झगड़ा डाल देता है

जो हर इक बात का है इश्क़ में हमराज़ दोनों का
हमारे वस्ल में वह ही अडंगा डाल देता है
</poem>
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