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|रचनाकार=आकृति विज्ञा 'अर्पण'
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<poem>
शब्द सारे मौन होकर सम्मिलित मुस्कान में।
कपकपांती भंगिमायें कह रहीं कुछ कान में।

लक्षणा अभिधा सखी,
अभिव्यंजना तक मौन है।
मौन की यह डोर थामे,
अद्वितीय वह कौन है?

है सुनिश्चित यह स्वयं को,
हमने अर्पण कर दिया।

जाने कैसी गंध है उस बाँसुरी की तान में।
शब्द सारे मौन होकर सम्मिलित मुस्कान में।

अव्यक्त की अभिव्यक्तियाँ,
हैं अनवरत जारी सखी।
अनुभूति के किस भावनद में,
बह रही प्यारी सखी?

प्रश्न करती भावनायें,
थक गयी हैं हारकर।

खो गयी है चेतना भी, मौन के चिर ध्यान में।
शब्द सारे मौन होकर सम्मिलित मुस्कान में।

पंख लगते गीत में अब,
प्राण उगते शब्द में।
भाव की लड़ियाँ लगीं हर
शब्द के प्रारब्ध में।

गीत भी शृंगार कर ,
प्रकृति सरीखे हो रहे।

उनका काजल मैं करूंगी, व्यस्त हूँ इस भान में।
शब्द सारे मौन होकर सम्मिलित मुस्कान मे।
</poem>
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