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|संग्रह=दीवान-ए-मधुमन / मधु 'मधुमन'
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<poem>
फूल ख़ामोश है कली भी चुप
हो गई जैसे ज़िंदगी ही चुप

मेरा जीना मुहाल करती है
एक ये आपकी ज़रा-सी चुप

कुछ तो बोलो भला बुरा ही सही
जान ले लेगी ये तुम्हारी चुप

एक मासूम आज जां से गया
कितनी भारी पड़ी है सबकी चुप

ज़ुल्म बेख़ौफ़ हो रहे हैं यहाँ
खल रही है मुआशरे की चुप

है बराबर गुनाह में शामिल
वो तुम्हारी हो या हमारी चुप

बात सच्ची कही जो ‘मधुमन ‘ने
लब पर हर शख़्स ने लगा ली चुप
</poem>
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