{{KKCatGhazal}}
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दुख उसे इस बात का है ढह गयी दीवार
पर, नहीं ग़म दब गये मजदूर उसमें चार
कुछ खरोंचे आ गयीं तो आपका ये हाल
उस बेचारे का उजड़ पूरा गया संसार
जब भी देखो ज़ेब में वो डालता है हाथ
एक धनपशु क्या कहें आदत से है लाचार
ये तमाशा देखता हूँ रोज़ मैं चुपचाप
गर जुबां मुँह में नहीं जीने का फिर धिक्कार
आदमी हूँ, आदमीयत से हूँ कोसों दूर
प्रश्न ये मन में है उठता रोज़ सौ सौ बार
आपको धोखा हुआ है लें हक़ीक़त जान
दिख रहा मोटा मगर भीतर से वो बीमार
मन में काला चोर बैठा दिल नहीं है साफ़
प्यार भी उस शख़्स का मिल जाए तो बेकार
ख़त्म हो सकती नहीं है यह अँधेरी रात
जब तलक इन्सान के दिल में न हो उजियार
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