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गाँव भी अब हो चुका सयाना है
कितना अब है बचा पुराना है
सादगी अब बदल गयी उसकी
ढंग उसका भी क़ातिलाना है
 
उड़ना उसको भी आ गया है अब
चाल उसकी भी शातिराना है
 
अब तलक फूस के वो घर में था
उसको भी पक्का घर बनाना है
 
छोड़कर भात घर का, होटल में
जा के बिरयानी उसको खाना है
 
चाय की जगह पी रहा ठर्रा
उसको भी आधुनिक दिखाना है
</poem>
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