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रविवार को 18:19 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अमर पंकज
|अनुवादक=
|संग्रह=हादसों का सफ़र ज़िंदगी / अमर पंकज
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<poem>
आँख मेरी देखिये अब नम नहीं है,
ज़िंदगी की हर डगर तो सम नहीं है।
साँप की फ़ितरत है डसना मानता हूँ,
ज़ह्र मुझको मार डाले दम नहीं है।
सुर-असुर संग्राम तो सच सभ्यता का,
कल्पना की ही उपज तो यम नहीं है।
किस तरह तोड़ा मेरा सबने भरोसा,
क्या बताऊँ कोई तो हमदम नहीं है।
हैं हज़ारों ग़म के मारे इस जहाँ में,
सिर्फ़ तेरा ग़म ही केवल ग़म नहीं है।
खुद बिखर कर रोकता हूँ आँसुओं को,
जी रहा इस दौर में हूँ कम नहीं है।
दानवों के चीथड़े कैसे उड़ेंगे,
तू ‘अमर’ है आदमी तू बम नहीं है।
</poem>