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क़तआत / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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6 मई
उलझा ये जनेऊ तो सुलझता नहीं तुमसे
सुलझाओगे कैसे भला महबूब के गेसू
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लेकर वो कई साथ में आती है हमेशा
कहते हैं मुसीबत कभी तनहा नहीं आती
</poem>
SATISH SHUKLA
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