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<poem>
झर झर झर
झर झर झर
बरस रही है पानी की मूसलाधार आग
जल रही हैं आवाजों के काग़ज़ में लिखी हुई
कष्टों की कहानियाँ
भावों के गीत
इस बरसात में दर्द बरामदे में चुपचाप बैठा है
लाचारी चूल्हे के पास धुएँ से जूझ रही है
इस वक्त
राहों में
चबूतरों में
भिगी है जीवन की लय
भिगी है हमेशा की चहलपहल

झर झर झर
झर झर झर
बरस रही है पानी की मूसलाधार आग
छत पर बरसात चोट करती है
पत्तियों पर पानी का चीत्कार सुनाई देता है
निश्चिंत हैं मुर्गी के चूजे माँ के आश्रय में
शांत है छत पर कबूतर का जोड़ा
बल्कि अता-पता नहीं है
कहीं बाढ़ घर-आँगनों को नष्ट करती है
कहीं बिजली सपनों के दुनिया को जलाती है
कहीं निगल रही है बरसात ढेरों चिल्लाहटों को
इस वक्त
उलटा लटका चमगादड जैसा है कोहरा
फैल रहा है चारों ओर अन्धेरा

झर झर झर
झर झर झर
बरस रही है पानी की मूसलाधार आग
अन्दर ही अन्दर अभाव का भूस्खलन है
आने वाली विपदा की हवाएँ चल रही हैं
उड़ गई हैं आसपास की छतें
इस वक्त
खूंटी पर लटकी है भिगी हुई दैनिकी
ठंडी शाम को बूढ़ी दादी गुड़गुड़ाती है हुक्का
जल रही है पानी की मशाल भूख के विरुद्ध
उछल रहा है पानी का जुलुस प्यास के खिलाफ
शुरू हो गया है
एक नया आंदोलन

झर झर झर
झर झर झर
बरस रही है पानी की मूसलाधार आग
सुनाई दे रहा है कमाल का संगीत
टप टप टप
जमीन पर बने हैं गड्ढे
पानी की अपनी सहस्र धार की सेना बढ़ रही है
नहर-नालों से नदी तक पहुँचने
नदी बह रही है समुद्र से मिलने

इस वक्त
विचार के तालाब में उठ रही हैं लहरें, कि
जम कर रुकना नहीं है जीवन
बहते जाना है
बहते जाना है
बहते जाना है।
</poem>
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