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झूठ / कुमार कृष्ण

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|संग्रह=गुल्लक में बाजार के पाँव / कुमार कृष्ण
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<poem>
कौन कहता है झूठ के पाँव नहीं होते
थोड़ा ध्यान से देखो मुझे-
मेरे हाथ, पाँव, पंख नज़र आएँगे
मुझे दौड़ना, तैरना, उड़ना तीनों आता है
मैं हूँ तीन सौ पैंसठ सिर वाला जीव
इस धरती पर
मैं एक झटके में ख़त्म कर देता हूँ
सच की हेकड़ी
छीन लेता हूँ उसकी आँखों की रोशनी
उसका अमन-चैन-सकून
सुखा देता हूँ अपनी आग से

मैं धरती का बादशाह हूँ

तुम सतयुग के देवता थे अरे सच
क्यों, किस के लिए जी रहे हो इस धरती पर

तुम फटा हुआ जूता हो
टूटी हुई लाठी, पुराना चश्मा

मैं गांधी की तस्वीर में छुपा-
समय का सबसे बड़ा सच हूँ

मैं शब्दों से छीनता हूँ उसकी भाषा
किसी से आन-बान-शान-स्वाभिमान

मैं जब से पैदा हुआ मैंने तुम्हारी तरह रोना नहीं सीखा
तुम नंगे पाँव भटकते हो सड़क पर
मैं राजा की शेरवानी में
उड़ता हूँ सात समन्दर पार

मुझे बेहद पसन्द है महलों में रहना
तमाम बड़े घर चलते हैं मेरे जूते पहन कर
मैं नये-नये रंगों में रहता हूँ राजा की जेबों में

राजा की जीभ पर तप कर
जब मैं आता हूँ हवा में
बस अनमोल वचन हो जाता हूँ
मुश्किल बहुत मुश्किल है मुझ से लड़ पाना
मैं अपराजित सत्य हूँ इस धरती पर।
</poem>
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