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कल 17:13 बजे {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विनीत पाण्डेय
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अच्छा चलो विदा लेता हूँ
समर जीत कर लौटूँगा अब
उत्सव की तैयारी रखना
आँखों में आँसू होंगे तो तुमको सब धुँधला दीखेगा
विदा प्रकृति के देव कर रहे कैसे तुम्हें भला दीखेगा
कहा मुझे आँखों का तारा तो आँखों में गर्व ज्योति हो
वापस तो आऊँगा निश्चित बाधाएँ फ़िर कोटि-कोटि हों
रहे आरती शिखा अकम्पित सजी हुई वह थारी रखना
उत्सव की तैयारी रखना
त्याग किया अगणित लालों ने बलिदानों का कर्जदार हूँ
दीपक नवयुग का जलना है मैं भी उसका कर्णधार हूँ
कल इतिहास लिखा जाएगा जिन पर दीप्त अक्षरों से सज
मैं उनमें से एक पृष्ठ हूँ प्राप्त मुझे अमरत्व है सहज
फिर क्यों अपने कोमल मन पर नाहक बोझा भारी रखना
उत्सव की तैयारी रखना
मेरी पूरी राह अलंकृत तने हुए गौरव शीशों से
अविरल भाव पुष्प वर्षा से विजयी भव के आशीषों से
इस पथ के अंततम बिंदु पर पलकों का है राज सिंहासन
दृग जल से अभिषेक नियत है मुख असंख्य से मंत्रोच्चारण
तीन रंग से राजतिलक पर मेरी भव्य सवारी रखना
उत्सव की तैयारी रखना
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