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==..मेरी कलम बिके तो मेरा सिर कलम कर देना ==
[[चित्र:LogoJagran.gif|left|thumb|184px|jagran 23 january 2007]]
बदायूं। चाहें घुटना पड़े कबीरा की तरह, चाहें विष पीना पड़े मीरा की तरह। दास हो न पलना पसंद करुगा, मैं हाथी से कुचलना पसंद करुगा॥
यह वह चंद पंक्तियां हैं, जिनसे डा. बृजेंद्र अवस्थी के स्वभाव का सहज अंदाज लगाया जा सकता है। संघर्ष स्वाभिमान और सफलता यह शब्द राष्ट्रकवि डा.अवस्थी के जीवन के मूलमंत्र रहे। वैसे तो उनके व्यक्तित्व को एक कलम और चंद पन्नों के दायरे में समेटना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है, लेकिन इतना अवश्य है कि अपनी सोच के समुद्र में लेखनी को आकण्ठ डुबोने वाले डा.अवस्थी की प्रत्येक अभिव्यक्ति स्वाभिमान और राष्ट्रीय एकता की भावना को प्रकट करती है। संसार में कुछ विरले ही होते हैं जिनका व्यक्तित्व कुछ शब्दों में नहीं बांधा जा सकता। कुछ ऐसे ही थे कविवर डा.बृजेंद्र अवस्थी, जिनके हृदय में वात्सल्य का सागर था तो देश की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति बाहरी वेदना भी। वाग्देवी मां सरस्वती के प्रसाद से उन्होंने अनेक उत्कृष्ट रचनाएं कर हिन्दी काव्य जगत को समृद्ध बनाया। डा.अवस्थी ने अपने जीवन में न केवल प्रचुर साहित्य का सृजन किया, बल्कि 1960 के बाद अपनी पहचान बनाने वाले कवियों को बनाने संवारने में पितृवत वत्सलता दी। स्वभाव की बात करें तो डा.अवस्थी बड़े ही विनम्र थे। छोटों से अगाध प्रेम, हमउम्र के लोगों से मैत्रीपूर्ण व्यवहार और बड़ों का आदर उनकी खूबी थी। स्वाभिमान की भावना तो उनमें कूट-कूट कर भरी थी। जीवन भर उन्होंने न तो किसी से कुछ मांगा और न ही किसी के समान गिड़गिड़ाए। सिंह सी गर्जना उनकी कविताओं में ही नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व में भी थी। उनकी कविता का हर शब्द बोलता था। उनके जीवन की सच्चाई और ईमानदारी इन पंक्तियों से साफ परिलक्षित होती है-
मां मुझे शक्ति दो कवि धर्म को निभाऊं मैं,
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