1,229 bytes added,
07:12, 4 दिसम्बर 2008
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुँअर बेचैन
}}
छत हुई बातून वातायन मुखर हैं
सर्दियाँ हैं।
एक तुतला शोर
सड़कें कूटता है
हर गली का मौन
क्रमशः टूटता है
बालकों के खेल घर से बेख़बर हैं
सर्दियाँ हैं।
दोपहर भी
श्वेत स्वेटर बुन रही है
बहू बुड्ढी सास का दुःख
सुन रही है
बात उनकी और है जो हमउमर हैं
सर्दियाँ हैं।
चाँदनी रातें
बरफ़ की सिल्लियाँ हैं
ये सुबह, ये शाम
भीगी बिल्लियाँ हैं
साहब दफ़्तर में नहीं हैं आज घर हैं
सर्दियाँ हैं।
'''''-- यह कविता [[Dr.Bhawna Kunwar]] द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।<br><br>'''''