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फसल / केदारनाथ सिंह

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{{KKRachna
|रचनाकार=केदारनाथ सिंह
|संग्रह=
}}

<Poem>
मैं उसे बरसों से जानता था--
एक अधेड़ किसान
थोड़ा थका
थोड़ा झुका हुआ
किसी बोझ से नहीं
सिर्फ़ धरती के उस सहज गुरुत्वाकर्षं से
जिसे वह इतना प्यार करता था
वह मानता था--
दुनिया में कुत्ते बिल्लियाँ सूअर
सबकी जगह है
इसलिए नफ़रत नहीं करता था वह
कीचड़ काई या मल से

भेड़ें उसे अच्छी लगती थीं
ऊन ज़रूरी है--वह मानता था
पर कहता था--उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है
उनके थनों की गरमाहट
जिससे खेतों में ढेले
ज़िन्दा हो जाते हैं

उसकी एक छोटी-सी दुनिया थी
छोटे-छोटे सपनों
और ठिकरों से भरी हुई
उस दुनिया में पुरखे भी रहते थे
और वे भी जो अभी पैदा नहीं हुए
महुआ उसका मित्र था
आम उसका देवता
बाँस-बबूल थे स्वजन-परिजन
और हाँ, एक छोटी-सी सूखी
नदी भी थी उस दुनिया में-
जिसे देखकर-- कभी-कभी उसका मन होता था
उसे उठाकर रख ले कंधे पर
और ले जाए गंगा तक--
ताकि दोनों को फिर से जोड़ दे
पर गंगा के बारे में सोचकर
हो जाता था निहत्था!

इधर पिछले कुछ सालों से
जब गोल-गोल आलू
मिट्टी फ़ोड़कर झाँकने लगते थे जड़ों से
या फसल पककर
हो जाती थी तैयार
तो न जाने क्यों वह-- हो जाता था चुप
कई-कई दिनों तक
बस यहीं पहुँचकर अटक जाती थी उसकी गाड़ी
सूर्योदय और सूर्यास्त के
विशाल पहियोंवाली

पर कहते हैं--
उस दिन इतवार था
और उस दिन वह ख़ुश था
एक पड़ोसी के पास गया
और पूछ आया आलू का भाव-ताव
पत्नी से हँसते हुए पूछा--
पूजा में कैसा रहेगा सेंहुड़ का फूल?
गली में भूँकते हुए कुत्ते से कहा--
'ख़ुश रह चितकबरा,
ख़ुश रह!'
और निकल गया बाहर


किधर?
क्यों?
कहाँ जा रहा था वह--
अब मीडिया में इसी पर बहस है

उधर हुआ क्या
कि ज्यों ही वह पहुँचा मरखहिया मोड़
कहीं पीछे से एक भोंपू की आवाज़ आई
और कहते हैं-- क्योंकि देखा किसी ने नहीं--
उसे कुचलती चली गई

अब यह हत्या थी
या आत्महत्या--इसे आप पर छोड़ता हूँ
वह तो अब सड़क के किनारे
चकवड़ घास की पत्तियों के बीच पड़ा था
और उसके होंठों में दबी थी
एक हल्की-सी मुस्कान!

उस दिन वह ख़ुश था।

</poem>