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14:56, 4 दिसम्बर 2008 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=केदारनाथ सिंह
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<Poem>
सैकड़ों सोई हुई क़ब्रों के बीच
वह अकेली क़ब्र थी
जो ज़िन्दा थी
कोई अभी-अभी गया था
एक ताज़ा फूलों का गुच्छा रखकर
कल के मुरझाए हुए फूलों की
बगल में
एक लाल फूल के नीचे
मैट्रो का एक पीला-सा टिकट भी पड़ा था
उतना ही ताज़ा
मेरी गाइड ने हँसते हुए कहा--
वापसी का टिकट है
कोई पुरानी मित्र रख गई होगी
कि नींद से उठो
तो आ जाना!
मुझे लगा
अस्तित्व का यह भी एक रंग है
न होने के बाद!
होते यदि सार्त्र
क्या कहते इस पर--
सोचता हुआ होटल लौट रहा था मैं
</poem>