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क्या इस जगत यह विश्व रूप है जाल का मूल कारण, और जिसका अधिपति ब्रह्म कौन व् हम सभी?है,<br>उत्पन्न किससेस्वरुप शासन शक्तियों से, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?सत्ता जिसकी अगम्य है।<br>किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान वह एकमेव ही ब्रह्म पूर्ण समर्थ क्षमतावान है, <br>कथ कौन संचालक जगत काजो जानते परब्रह्म को वे ही अमर भी हैं, कौन ब्रह्म महान है? हैं॥ [ १ ]<br><br>
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वही आत्म भू सत्ता व् शक्ति से विश्व पर शासन करे,<br>
वही एकमेव अभिन्न पूर्ण जो सृष्टि का नियमन करे।<br>
वही प्राणियों में प्राण, सृष्टि का नियामक रूप है,<br>
वही प्रलय काले सृष्टि स्व में , समेट लेता अनूप है॥ [ २ ]<br><br>
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सर्वत्र चक्षु व् हाथ, मुख, वही पैरों वाला ही ब्रह्म है,<br>
आकाश पृथ्वी का रचयिता , अगम मर्म अगम्य है।<br>
हाथों से दो- दो जीवों को तो युक्त करता है प्रभो,<br>
पंखों से दो-दो पक्षियों को , युक्त करता है विभो॥ [ ३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation"> विश्वधिपति परब्रह्म का, जो रुद्र रूप उत्कर्ष है,<br>वही वृद्धि व् उत्पत्ति का सर्वज्ञ हेतु महर्षि है।<br>सृष्टि के आदि में हिरण्य गर्भ की, ब्रह्म ने की सर्जना,<br>वही स्वस्ति बुद्धि से हमें संयुक्त कर दे, प्रार्थना॥ [ ४ ]<br><br>
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शिव,सौम्य, पुण्य प्रभा प्रकाशित , रुद्र रूप महान जो,<br>
उस मूर्ति से कल्याण पाओ , मानवों उसको भजो।<br>
शिव शक्ति स्वस्ति अभिप्रियम , कल्याणमय गिरिशन्त हे!<br>
तेरी कृपा की दृष्टि मात्र को, हम प्रनत हैं अनंत हे! ॥ [ ५ ]<br><br>
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गिरिशन्त ! हे गिरिराज ! रक्षक तुम हिमालय के महा,<br>
जो वाण धारण हाथ में , वह न विनाशक हो अहा !<br>
उस वाण को कल्याण मय, होने दो हे करुणा निधे,<br>
हिंसा जगत से जीव की , किंचित न होवे महाविधे॥ [ ६ ]<br><br>
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पूर्वोक्त जीव समूह जग से , ब्रह्मा से भी श्रेष्ठ हैं,<br>
सब जीवों में अनुकूल उनके जीवों के ही तिष्ठ हैं।<br>
सब जगत को सब ओर से , घेरे हुए व्यापक महा,<br>
उस एक ब्रह्म को जान , ज्ञानी अमर हो जाते यहाँ॥ [ ७ ]<br><br>
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जो ज्ञानी महिमामय परम परमेश प्रभु को जानता,<br>
वही तम् अविद्या से परे , रवि रूप की हो महानता।<br>
जिसे जान कर ही मनुष्य मृत्यु का उल्लंघन कर सके,<br>
फ़िर जन्म-मृत्यु विहीन हो, पद परम पाकर तर सके॥ [ ८ ]<br><br>
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परमेश प्रभु से श्रेष्ठ , कोई दूसरा किंचित कहीं ,<br>
सूक्ष्मातिसूक्ष्म , महिम महे कोई अन्य अथ स्थित नहीं।<br>
वही एक निश्छल भाव से , सम वृक्ष नभ आरूढ़ है,<br>
ब्रह्माण्ड में परिपूर्ण स्थित , मर्म ब्रह्म के गूढ़ हैं॥ [ ९ ]<br><br>
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ततो यदुत्तरततं तदरूपमनामयम् ।<br>
य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति अथेतरे दुःखमेवापियन्ति ॥१०॥<br>
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आकार हीन विकास शून्य , अति परम प्रभो जिसे विज्ञ है,<br>
वे ही जन्म मृत्यु विहीन , जिनका लक्ष्य ब्रह्म प्रतिज्ञ है।<br>
इस मर्म से अनभिज्ञ जो , पुनि -पुनि जनम व् मरण के,<br>
दुःख पाते और भटकते हैं, बिन करुणा निधि की शरण के॥ [ १० ]<br><br>
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सब ओर मुख सर ग्रीवा वाला है महत करुणानिधे,<br>
सब प्राणियों के हृदय रूपी गुफा में है महाविधे।<br>
प्रभु सर्वव्यापी है अतः, व्यापकता अणु- कण व्याप्त है,<br>
साधक जहाँ जिस रूप में , चाहें वह सबको प्राप्त है॥ [ ११ ]<br><br>
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निश्चय ही प्रभुता पूर्ण प्रभु , शासक समर्थ महान है,<br>
अविनाशी अव्यय ज्योतिमय के, न्याय पूर्ण विधान हैं।<br>
अंतःकरण मानव का प्रेरित , करता अपनी ओर है,<br>
किंतु मानव सुप्त , माया मोह में ही विभोर है॥ [ १२ ]<br><br>
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अंगुष्ठ के परिमाण वाला है, ब्रह्म सबके हृदय में,<br>
सम्यक विधि स्थित समाहित काल क्रम व् समय में।<br>
निर्मल हृदय व् विशुद्ध मन , साधक यदि करे ध्यान तो,<br>
वही जन्म -मृत्यु विहीन लीन हो, ब्रह्म में ही शत कृतो॥ [ १३ ]<br><br>
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वह परम पुरुषोत्तम सहस्त्रों , चक्षु , सिर, पग युक्त है,<br>
विश्वानि जग सब ओर से आवृत किए संयुक्त है।<br>
नाभी से दस अंगुल जो ऊपर , हृदय में स्थित सदा,<br>
है निर्विकारी , व्याप्त, हृदयों में दीन वत्सल वसुविदा॥ [ १४ ]<br><br>
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त्रिकाल चक्र तो ब्रह्म इच्छा के ही सब अनुरूप है,<br>
खाद्यान्नों से विकसित है जो कुछ , ब्रह्म का ही स्वरुप है।<br>
मोक्ष का स्वामी , अमिय रूपी अचिन्त्य की शक्ति से,<br>
भावः बंधनों से मुक्त मानव होता प्रभु की भक्ति से॥ [ १५ ]<br><br>
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सर्वत्र ही मुख, आँख, सिर व् कानों वाला है विभो,<br>
वह परम पुरुषोत्तम जनार्दन , व्याप्त कण - कण में प्रभो।<br>
ब्रह्माण्ड को सब ओर से आवृत किए वह महान हैं,<br>
सबको ही स्व में करके स्थित , कर रहा कल्याण है॥ [ १६ ]<br><br>
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वह परम प्रभु परमेश सारी इन्द्रियों से विहीन है,<br>
फ़िर भी सकल इन्द्रिय के विषयों में तो पूर्ण प्रवीण है।<br>
परमेश प्रभु परमात्मा ही स्वामी है, सर्वेश है,<br>
शासक बृहत,आश्रय विरल, अधिपति, शरण है, महेश है॥ [ १७ ]<br><br>
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परमात्मा नव द्वार वाले , इस शरीरी नगर में,<br>
स्थित है अन्तर्यामी रूप से , हर निमिष , हर पहर में।<br>
जंगम व् स्थावर चराचर , जगत का वही केन्द्र है,<br>
बाह्य जग लीला उसी की , केन्द्र सबका महेंद्र है॥ [ १८ ]<br><br>
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वह हाथ पैरों से रहित , पर ग्रहण गमन अपूर्व है,<br>
और चक्षु, कर्णों के बिना , देखे , सुने सम्पूर्ण है।<br>
अथ ज्ञेय व् अज्ञेय का सब अर्थ ईश्वर जानता<br>
उसको भला पर कौन जाने , किसमें इतनी महानता॥ [ १९ ]<br><br>
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अति सूक्ष्म से भी सूक्ष्म परब्रह्म , महत से अति महत है,<br>
वही जीवों की तो हृदय रूपी , गुफा में अथ निहित है।<br>
सविता की करुणा दृष्टि से , मानव को करुणा प्राप्त है,<br>
सब दुःख निषाद निःशेष होते हैं, यदि मानव आप्त है॥ [ २० ]<br><br>
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वेदज्ञ जो भी ब्रह्म के अति निकट , उनका कथन है,<br>
मैं ब्रह्म पुराण पुरूष महत को , जानता हूँ नमन है।<br>
ज़रा जन्म - मृत्यु से हीन , शाश्वत नित्य सत्य विराट है,<br>
कण - कण बसा वही, प्राणियों में बस रहा सम्राट है॥ [ २१ ]<br><br>
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