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क्या इस जगत का मूल कारणअति प्रथम सृष्टा मन हमारी बुद्धि को पावन करे, ब्रह्म कौन व् हम सभी?<br>उत्पन्न किससे, किसमें जीते, किसके हैं आधीन भी?हों बाह्य विषयासक्ति निवृति और सत्य स्थापन करें<br>किसकी व्यवस्था के अनंतर, दुःख सुख का विधान हैजिससे हमारी इन्द्रियों की शक्ति अंतर्मुख रहे, <br>कथ कौन संचालक जगत कापार्थिव पदार्थों से विमुख, कौन पर ब्रह्म महान है? से आमुख रहे॥ [ १ ]<br><br>
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परमेश की आराधना मय, यज्ञ में मन लीन जो,<br>
मन के ही द्वारा परम सुख , आनंद मय परब्रह्म भजो<br>
आराधना में मन लगे, और प्रार्थना विभु की करें.<br>
हम सब यथा शक्ति सतत , अभ्यर्थना प्रभु की करें॥ [ २ ]<br><br>
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जो व्योम में स्वर्गादि लोकों में गमन करते सदा,<br>
ज्योति विकीरण वे करें , देवें सहारा सर्वदा.<br>
मन बुद्धि को संयुक्त हे सविता !हमारी वे करें,<br>
आलस्य निद्रा , ध्यान के जो विघ्न हैं वे सब हरें॥ [ ३ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation"> जिस परम ब्रह्म में विप्र अपनी , बुद्धि करते प्रवृत हैं<br>अग्नि होत्र व् स्वस्ति वृतियों में चित्त जिनका नियत है.<br>ऐसे विचारक चिंतकों से हम करें स्तुति वही,<br>जिस सर्वव्यापी , अज्ञ ब्रह्म की महिमा न जाती कही॥ [ ४ ]<br><br>
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मन बुद्धि के स्वामी तथा अति आदि कारण सृष्टि के,<br>
पुनि नमन में संयुक्त ब्रह्म से , और याचक दृष्टि के.<br>
इस श्लोक स्तुति पाठ से , शुभ कीर्ति का विस्तार हो ,<br>
अमर ब्रह्म के पुत्र भी सब सुनें इसका प्रसार हो॥ [ ५ ]<br><br>
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ओंकार के जप ध्यान द्वारा, ब्रह्म रूपी अग्नि को ,<br>
ज्योतित प्रकाशित जब करें, तब विजित करते विध्न को.<br>
विधिवत निरोध हो प्राण वायु का, सोम रस आनंद हो ,<br>
उस स्थिति में सर्वदा मन शुद्ध , शेष भी द्वंद हों॥ [ ६ ]<br><br>
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अति आदि कारण ब्रह्म ही, सृष्टा है सारी सृष्टि का<br>
साधक करे आराधना तो पात्र हो शुभ दृष्टि का.<br>
फ़िर पूर्व साँची कर्म न बाधक हों जड़ता शेष हो,<br>
यदि सर्व आश्रय लीन ऋत साधक की दृढ़ता विशेष ॥ [ ७ ]<br><br>
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साधक गला, सिर और छाती, तीनों को उन्नत रखे,<br>
करे सीधा और स्थिर शरीर व् इन्द्रियों में सत रखे.<br>
फ़िर इन्द्रियों को मन के द्वारा हृदय में संचित करे,<br>
ओंकार की नौका से दुष्कर , भव प्रवाहों से तरे॥ [ ८ ]<br><br>
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आहार और विहार भी साधक के समुचित योग्य हों ,<br>
प्राणायाम से प्राण सूक्ष्म व् उच्छ्वास के योग्य हों.<br>
तब दुष्ट घोडों से युक्त रथ, ज्यों सारथी वश में करे,<br>
त्यों योग्य साधक इन्द्रियों को , साध मन वश में करे॥ [ ९ ]<br><br>
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हो ध्यान स्थल सुखद शीतल, शुद्ध, समतल, शांत भी.<br>
अति, शुचि, मनोरम, सौम्य बहु, हों दृश्य सुखदायक सभी .<br>
बहु अग्नि बालू और कंकड़, वायु शून्य गुहा न हो.<br>
बहु लोग आश्रय, आगमन, व्यवधान और जहाँ न हो॥ [ १० ]<br><br>
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कोहरा, धुआं, रवि, वायु, अग्नि व् स्फटिक, मणि शशि कभी,<br>
जुगनू व् बिजली के समानान्तर हो दृश्यों के सभी.<br>
पुनरावृति योगी को हो, जो ब्रह्म योग में लीन हैं,<br>
ये सफलता के चिन्ह, योगी ऋत दिशा तल्लीन है॥ [ ११ ]<br><br>
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आकाश, पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, ये पाँचों तत्व का.<br>
साधक में जब उत्थान और अधिकार होता सत्व का.<br>
उस योग अग्निमय देह में , कभी रोग का न प्रवेश हो.<br>
न ज़रा, न मृत्यु असमय , इच्छा शक्ति विशेष हो॥ [ १२ ]<br><br>
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आरोग्य जड़ता , हीनता, हर्षित हृदय व् प्रफुल्लता,<br>
विषयासक्ति की निवृति, वाणी में मृदु स्वर मृदुलता.<br>
देह में हो गंध सुरभित, वर्ण की उज्जवलता<br>
अविकारी होवें सिद्ध , जब हो सिद्धिओं की बहुलता॥ [ १३ ]<br><br>
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यदि रत्न आवृत मृत्तिका से तेजहीन लगे यथा,<br>
धुलकर प्रकाशित हो यदि निज रूप में आता तथा.<br>
वैसे ही यदि जीवात्मा को, आत्म तत्व प्रत्यक्ष हो,<br>
कैवल्य पा हो कृतार्थ निश्चय ब्रह्म उसको प्रत्यक्ष हों॥ [ १४ ]<br><br>
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अथ आत्म तत्व के द्वारा योगी, जानते ब्रह्मत्व को,<br>
नहीं इन्द्रियां हैं समर्थ किंचित, ब्रह्म के प्रत्यक्ष को.<br>
यदि जान ले ध्रुव ऋत अजन्मा महिमामय परमात्मा,<br>
पुनि - पुनि जनम और मृत्यु भय से, मुक्त हो जीवात्मा॥ [ १५ ]<br><br>
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परब्रह्म परमेश्वर ही निश्चय, सब दिशाओं में व्याप्त है,<br>
अति आदि कारण, आदि सृष्टि का और उसी में समाप्त है.<br>
वही सर्वतोमुख हिरण्यगर्भा और अन्तर्यामी है,<br>
ब्रह्माण्ड रूपी गर्भ स्थित, त्रिकाल दर्शी स्वामी है॥ [ १६ ]<br><br>
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परब्रह्म जो परमात्मा, अग्नि में है, जल में वही,<br>
विश्वानि लोकों में प्रतिष्ठित, गरिमामय मंडित मही.<br>
है वनस्पति औषधि में भी, सत्ता उसी सम्राट की,<br>
पुनि - पुनि नमन महिमा यही, उस विश्व रूप विराट की॥ [ १७ ]<br><br>
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