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::बाह्य भोगों का अनुसरण तो, मूर्ख ही केवल करें,<br>::वे विविध योनी मृत्यु बन्धन, मैं पर पड़ें और न तरें।<br>::अति धीर ज्ञानी ही सुमति से, ध्रुव अमर पद जानते,<br>::परमार्थ साधन मैं लगे, ऋत तत्व को पहचानते॥ [ २ ]<br><br>
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::स्वप्न और जागृत अवस्था की ज्ञान अनुभव चेतना,<br>::परमेश प्रभु की ही कृपा से मिली है संवेदना।<br>::जो सर्वव्यापी श्रेष्ठतम परमात्मा को जानते,<br>::दुःख शोक किंचित किसी कारण भी न उनको व्यापते॥ [ ४ ]<br><br>
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::प्रगट जल से पूर्व ब्रह्म जो,हिरण्यगर्भ के रूप में,<br>::है आत्म भू अखिलेश तप से , प्रगट रूप अरूप में।<br>::ऋत सर्व अंतर्यामी प्रभुवर, एकमेव ही ज्ञात है,<br>::हृदय रूपी गुफा में, जीवों के प्रभुवर व्याप्त है॥ [ ६ ]<br><br>
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::ज्यों गर्भिणी के गर्भ में बालक छिपा है,निहित है,<br>::त्यों दो अरिनियों के मध्य, अग्नि तत्व इव सन्निहित है।<br>::हवनीय द्रव्यों से याज्ञिक, करें नित्य जिनकी वंदना,<br>::वे ही नचिकेता तुम्हारे प्रश्न ब्रह्म की व्यंजना॥ [ ८ ]<br><br>
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::परब्रह्म जो भूलोक में,दिवि लोक में भी है वही,<br>::जो है वहाँ वह ही यहाँ, अनु एक भी प्रभु बिन नहीं।<br>::जो मोह्वश नानात्व की परिकल्पना में भ्रमित हैं,<br>::वे जन्म मृत्यु के चक्र में,अगणित युगों तक ग्रसित हैं॥ [ १० ]<br><br>
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