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15:43, 5 दिसम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शलभ श्रीराम सिंह
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<Poem>
बादल तो आ गए
पानी बरसा गए
लेकिन यह क्या हुआ? धानों के--
खिले हुए मुखड़े मुरझा गए!
हवा चली--शाखों से अनगिन पत्ते बिछुड़े!
बैठे बगुले उड़े।
लेकिन यह क्या हुआ? पोखर तीरे आकर--
डैने छितरा गए!
बादल तो आ गए...!
दूब हुलस कर विहँसी--जलने के दिन गए!
सूरज की आँख बचा--ईंट की ओट में
निकलने के दिन गए!
लेकिन यह क्या हुआ? पानी को छूते ही
अँखुए पियरा गए...!
निरवहिनों ने समझा--गीतों के दिन हुए!
पेंगों के पल हुए--कजरी के छिन हुए!
लेकिन यह क्या हुआ? आपस में
सब के सब झूले टकरा गए!
बादल तो आ गए...।
</poem>