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08:47, 8 दिसम्बर 2008 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक
|संग्रह=गुफ़्तगू अवाम से है / ज्ञान प्रकाश विवेक
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>
वो इक दरख़्त है दोपहर में झुलसता हुआ
खड़ा हुआ है नमस्कार फिर भी करता हुआ
मैं अपने आपसे आया हूँ इस तरह बाहर
कि जैसे चोर दबे-पाँव हो निकलता हुआ
वो आसमन का टूटा हुआ सितारा था
जो आ पड़ा है मेरी जेब में उछलता हुआ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के वास्ते घर से
पता नहीं मुझे लगता है कुछ उजड़ता हुआ.
</poem>