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सतरंगे प्लास्टिक में सिमटे सौ ग्राम अंकल चिप्स के लिये
ठुनकती बिटिया के सामने थोड़ा ’शर्मिन्दा सा जेबें टटोलते
अचानक पहुंच पहुँच जाता हूं हूँ
बचपन के उस छोटे से कस्बे में
जहां भूजे की सोंधी सी महक से बैचैन हो ठुनकता था मैं
और मां बांस माँ बाँस की रंगीन -सी डलिया में
दो मुठ्ठी चने डाल भेज देती थीं भड़भूजे पर
जहां जहाँ इंतज़ार में होती थीं सुलगती हुईहांड़ियों हुई हांड़ियों के बीच जगन की अम्मा. अम्मा।
तमाम दूसरी औरतों की तरह कोई अपना निजी नाम नहीं था उनका
प्रेम या क्रोध के नितांत निजी क्षणों में भी
बस जगन की अम्मा थीं वह
हालांकि पांच हालाँकि पाँच बेटियां भी थीं उनकीं एक पति भी रहा होगा जरूर ज़रूर पर कभी जरूरत ज़रूरत ही नहीं महसूस हुई
उसे जानने की
हमारे लिये बस हंड़िया में दहकता बालू
और उसमे खदकता भूजा था उनकी पहचान. पहचान।
हालांकि हालाँकि उन दिनों दूरदर्शन के इकलौते चैनल पर
नहीं था कहीं उसका विज्ञापन
हमारी अपनी नंदन, पराग या चंपक में भी नहीं