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भारत-पथिक / वृन्दावनलाल वर्मा

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श्वास ने प्राप्त हो किया विश्वास, सहज ही स्वच्छ हुआ उच्छास,
किरण का जाल पसार-पसार, किया ऊषा ने मंजुल हास,
उच्चरित हुआ विश्व का प्राण, भूला पथिक पा गया प्राण,
पवन के कण-कण का उद्भास जाकर करने लगा विलास।
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बढ़ा किरणों का क्रमश: दाप कभी मृदुल कभी आप,
किए सब क्षीण पुराने शाप, तपों से धर निज रूप कठोर,
भक्त ने की, प्रणाम सौ बार, कभी तो हुई नहीं स्वीकार,
कभी कर भी ली अंगीकार, हृदय में पीर उठी झकझोर।
 
'''6
 
बुरा हूँ तो किसका हूँ देव भला हूँ किसका हूँ भक्त
दया सब बनी रहे अविराम कमी है नहीं तुम्हारे पास
हुई यदि हँसी भक्त की कभी बिगड़ता तो उसका कुछ नहीं,
प्रभामय होते हैं निरपेक्ष जगत में होगा यह उपहास।
 
'''7
 
तुम्हें जो मन आए सो करे, हमें कहने का क्या अधिकार
विनय बस रही निरंतर यही, अमर हो शक्ति तुम्हारी देव,
भूल मत जाना अपनी टेक, भूलना केवल मेरा नाम,
तुम धरते-धरते ध्यान, हमारा बेड़ा होगा पार।
 
'''8
 
अर्चना करने की है चाह, चरण में अर्प का उत्साह,
पुजापा नहीं किन्तु है हाथ, बंदना कैसे होगी नाथ,
भिखारी आया मंदिर द्वार मांगता केवल यह वरदान-
चरणरज चर्चित भासित भाल, पदों में टिका रहे यह भाल।
 
'''रचनाकाल : 1929
</poem>
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