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|संग्रह=यह जो हरा है / प्रयाग शुक्ल
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 <Poem>
तकिये के सिरे पर सिर--
 
उखड़ी हुई नींद में
 
असंख्य गाँठों को खोलते
 
अंधेरे में दिखती चीज़ों की
 
शक्ल को पूरा करते--
 
खिड़्की से झाँकते तारों
 
पत्तों को लाते करीब
 
करवट बदलते
 
चीज़ों की धड़कनों साँसों को
 
सुनते--
 
सिरहाने रात के !
</poem>
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