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शरद बिल्लौरे आठवें दशक के उत्तरार्ध का सबसे अधिक संभावनाओं से भरा कवि था। हर जगह उसमें लोगों से अपनापा बना लेने का विलक्षण गुण था। उसकी कविता की आत्मीयता वस्तुतः उसके व्यक्तित्व का ही कविता में रूपान्तरण है। गाँव के अपने निजी अनुभवों को कविता में रूपान्तरित करते हुए १९७४-७५ के आसपास उसने कविता लिखना शुरू किया था। उसकी प्रारम्भिक कविताओं में भी एक सहज और स्वयंस्फूर्त वर्ग-चेतना थी, जिसका विकास आगे चलकर एक प्रतिबद्ध कविता में हुआ।
उसकी कविता गहरे और सघन लयात्मक संवेदन की कविता है। जीवन की भटकन और कठिन संघर्षों को रचनात्मक कौशल और व्यस्क होती स्पष्ट वैचारिक दृष्टि के साथ कविता और कविता की विविधता में बदलती कविता। लोक-विश्वासों और लोक-मुहावरों को नए सन्दर्भ में व्याख्यायित करती। तीव्र आवेग और खिलंदड़ेपन के साथ ही गहरी आत्मीयता और सामाजिक विसंगतियों से उपजे विक्षोभ और करुणा की कविता।
उसकी कविता अभी प्रक्रिया में थी, अपनी पहचान और अपने मुहावरे को अर्जित करने की प्रक्रिया में, लेकिन एक महत्त्वपूर्ण कविता की पूरी सम्भावनाएँ उसमें मौज़ूद थीं।
उसकी सौ से अधिक कविताओं में से चुनी हुई चवालिस कविताएँ इस संग्रह में ली गई हैं। इसके अतिरिक्त एक नाटक "अमरू का कुर्ता" भी उसने लिखा था जिसे अन्तिम स्वरूप देने का अवसर उसे नहीं मिला।
'''--राजेश जोशी
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