{{KKRachna
|रचनाकार=मोमिन
}}[[Category:ग़ज़ल]]<poem>हम समझते हैं आज़माने को <br>उज़्र उज्र कुछ चाहिए सताने को <br><br>
संगसुबहे-एइशरत है न वह शामे-दर से तेरे निकाली आग <br>विसालहमने दुश्मन का घर जलाने को <br><br> चल के काबे में सजदा कर मोमिन<br>छोड़ उस बुत के आस्ताने हाय क्या हो गया ज़माने को
बुलहवस रोये मेरे गिरियाँ पे अब
मुँह कहाँ तेरे मुस्कुराने को
उज़्र = बहाना बर्क़ का आसमाँ पर है दिमाग़फूँक कर मेरे आशियाने को
रोज़े-मशहर भी होश अगर आयाजायेंगे हम शराबख़ाने को कोई दिन हम जहाँ में बैठे हैंआसमाँ के सितम उठाने को संग-ए-दर = दरवाज़े से तेरे निकाली आगहमने दुश्मन का घर जलाने को चल के का पत्थर, चोखट'बे में सिजदा कर 'मोमिन'छोड़ उस बुत के आस्ताने को
'''शब्दार्थ:उज्र = बहाना सुबहे-इशरत = सुखद सुबहबुलहवस = लालच का खेलसंग-ए-दर = दरवाज़े का पत्थर, चौखटआस्ताने = घरद्वार, दरवाज़ा</poem>