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{{kkRachana
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
}}
'''झील पर पंछी : एक'''
(आगमन)
नदी मुख पर जमा हैं
पंछियों के परिवार
बहुत दूरियों से उड़कर आये हैं
विपाशा के तट पर
वे यायावर
इन्होंने लांघी हैं
ठण्डे ध्रुव रेगिस्तानों
दूभर मैदानों की दूरियां
बड़े उत्साह के साथ
पार किए हैं
नीले, पीले, लाल
बदराये आसमान
राह के पानियों में
देखे हैं इन्होंने
सूरज और चांद के प्रतिबिम्ब
उड़ते-उड़ते
अपने वंश को बढ़ाते
तय की हैं इन्होंने
हिमालयी ऊॅंचाइयॉं भी
जच्चगी सही है इनकी मादाओं ने
देवतरुओं की टहनियों पर
खुले आकाश के नीचे
सर्दियों में ये आते हैं
बर्फ के मैदानों से
गर्मियों में लौट जायेंगे
अपने-अपने घर
नदी तट का यह महोत्सव
संगीत और नाच
सब हो जाएगा समाप्त
झील को घेर लेगा
फिर वही निर्जन एकान्त
नदी द्वीपों पर बॅंधी होंगी
फिर मल्लाहों की नावें
रिमझिम होगी
पास की वनखण्डियों में
एक अलग ऋतुचर्या
होगी प्रदर्शित।