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 |रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत|संग्रह=घर एक यात्रा है / श्रीनिवास श्रीकांत
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   '''पहाड़ों पर कत्लेआम''' <Poem>
जंगल में दुबके इमारती पेड़
 
कर रहे थे वार्तालाप
 जब कटे काटे जा रहे थे उनके बुजुर्ग दरख्तदरख़्त
वे रोये थे दहाड़-दहाड़ कर
 
सुना था पास के झरनों ने
 
बहती हवाओं ने
 
अन्धेरी कन्दराओं ने
 
चरवाहे, ग्वाल
 
गाँव के खेतीहर
 
चरते पशु
 
सुन नहीं सकते थे उनका रुदन
 
पर उनको जिबह होते देखकर
 
वे भी रोये थे
 
पहाड़ की ढलानों पर हुआ था
 
कत्लेआम
 
बिछ रही थीं रेल-पटरियाँ
 खिलौना -गाडिय़ों के लिये 
ताकि उन पर
 
आ-जा सकें
 
गौरांग साहबों की सवारियाँ
 
यह हुआ आज से
 
ठीक सौ बरस पहले
 
बैल खींचते रहे पहाड़ी खेतों में
 
बड़ी फाल वाले हल
 
किसान बोते रहे बीज
 
होती रही बारिशें
 
गाती रही खड्डें
 
अपनी धुन में लोक-गीत
 
पार वनों में बजती रही बाँसुरी
 
मगर नंगी होती रही
ढलवाँ ज़मीन
ढलवाँ जमीन  फिर आये जालिम ज़ालिम ठेकेदार वे करते रहे देसी -शासन की 
नाक के नीचे
 
इमारती पेड़ों के
 
बड़े पैमाने पर
 नाजायज नाजायज़ कारोबार 
लकड़ी की तस्करी
 
जो थी पहाड़ों का सोना
 
वे हुए और नंगे
 
नदियों की घाल में
 
बह कर गये थे
 अभागे दरख्तों दरख़्तों के शव मैदान की काठ -मण्डियों में बिकने 
इन्हीं में थे उनके बच्चे भी
 
जो कीलों से जड़े गये
 सेठ-भवनोंकी भवनों की दीवारों, छतों और तोरणी -द्वारों पर देश जो हुआ था आजादआज़ाद
वह था जंगलाती सरमायेदारी का
 
एक भद्दा दौर
 
सचमुच
 
फिरंगियों से भी ज्य़ादा
 
बेरहम थे वे
 
जंगलों के हत्यारे।
</poem>
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