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05:09, 12 जनवरी 2009 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
}}
समय को हम सहजता से खो देते हैं
विस्मृत कर देते हैं एक-एक कर
इतिहास की सभी अभिधारणाओं को
सदियाँ गुजरने क्र बाद
जो होता है हमारे पास
वह होती है महज घटनाओं की सागरझाग
जन मन में कल्पित
मन्द और संदिग्ध
शेष नहीं रहता तदभव कि सूर्य ने कितनी धूप दी
कितने बिम्बित चन्द्रमाओं ने
उत्तेजित किया समुद्र को
कितने नाविकों पर बरपा हुए
पानियों के
उत्ताल तरंगित तूफ़ान
अन्तत: जो हुए विलीन
समय, साधनों और दबावों की
तलछट में
होता है बड़ा जड़वत
इसका स्पर्श भी
जिसमें से लगातार
गुजर रहे हैं हम
एक-दूसरे को खोते हुए
होते अनन्त में विलीन
पीछे हटता है मायावी आकाश
अपने समग्र शाब्दिक मूल के साथ
ध्वन्यालोक में अवस्थित
परिणामी अन्तराल में बदलता
पाश्र्व में सुनायी देती
दूर से आती
पानी की छप-छप।