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बस्ती / श्रीनिवास श्रीकांत

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{{KKRachna

|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत

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अपनी काँच खिड़कियों से झाँकती रहती हैं

बस्ती की ये निर्जन हवेलियाँ

इनके मालिक हैं अनुपस्थित


मैदानों से आते हैं वे हर अवकाश में

खासकर ठेठ गर्मियों में

जब वहाँ मौसम होता है दुस्साध्य


वे प्राय: आते हैं

अपनी मॉडल गाडिय़ों में

चुलबुले फिल्मी कम्पोज़रों के

रॉक गाने सुनते-सुनते


घाटी-घाटी तराशी सड़कों पर

गूँजती हैं उनकी हवा के थपेड़ों से

टुकड़ा टुकड़ा धुनें


इस अधबसी बस्ती में

पानी का नहीं है कोई वसीला अब तक

इसलिये वे लाते हैं

बोतलों में बन्द

खनिज जल

जबकि पर्वतीय वन खण्डियों से अब

करीब-करीब नदारद है खनिज


वे आते हैं लिफाफों में डबल रोटियाँ

मक्खन और जमा हुआ मांस लिये

अपने नन्हे-नन्हे

गैस सिलेण्डरों के साथ

ताकि वे पर्वतों के सान्निध्य में

मिलजुलकर कर सकें सहभोज


इस तरह वे पिकनिक पर

आते हैं हर बार

और एकाएक तोड़ देते हैं

शीशे की तरह

अपने खरीदे हुए घरों की चुप्पी


बन्दर भी जिप्सी जमा होने लगते हैं

उनके खानों की सुगंध के साथ


अजब मुसाफिरखाना है यह बस्ती

और इसका यह सिलसिला

जिसे इनेगिने नियमित निवासी

देखकर होते हैं दुखी

और तैयार करते हैं अपने आपको

इनके जाने के बाद का

गैर-कुदरती सन्नाटा

वहन करने योग्य


लगातार गुजरते रहते हैं

इसकी गलियों से

हवाओं के तूफानी लश्कर

झटकों से टूट कर गिरती हैं

खिड़कियाँ

खनखनाती हैं

काँच की आवाज


कभी हवा के पछुआ-पूरबा मौसम

और कभी बरसात में

दरवाजों पर होती है खट-खट

लगता है दैत्य है कोई जो क्रोध में

मार रहा लगातार मुक्के


अगर ये खुल जाएँ तो

अन्दर भी बाहर की तरह

आ जाएगा तूफान

और कमज़ोर बुनियाद पर खड़ी

ये डिब्बीनुमा भारी भरकम इमारतें

लगेंगी भय से डोलने


आधी रात के तूफानों में

दिल के लिये

एक खौफनाक मंजर है यह बस्ती

जिसे देखना नहीं

सुनना ही होगा बेहतर।
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