Changes

|रचनाकार=श्रीनिवास श्रीकांत
|संग्रह=घर एक यात्रा / श्रीनिवास श्रीकांत
}}
<Poem>अनागरिकों का समूह गान
हम हैं अनागरिक
 
हमारा नहीं कोई घरबार
 
न कोई गाँव-ठाँव
 
न देश
 
न सरहदें
 
हवा हैं
 
जनम के यायावर हैं हम
 
हमने अपने दुखते पाँवों से
 
नापा है रेगिस्तान
 
समुद्र तक गये हैं हम
 
छाना है हमने
 
आकाश का हर कोना
 
पार कीं परबतों की
 
अनेक ऊँचाइयाँ
 
अपनी पहचान को
 
जातिदाह से बचाते
 
पहुँच गये हैं अब हम
 
धरती के अन्तिम कगार पर
 
जहाँ चारों ओर घिरा है
 
आसमान पराया-पराया
 
और ऊपर फैली हुई है
 
बेसरहदी खला
 
सिरजनहार की
 
हम हैं गैरबाशिन्दे
 
पृथ्वी के गोलक पर
 
हमने खूनी तूफानों का
 
किया अपने हर देशकाल में
  सामना 
रेत की खजूर थे हम
 
टूटे नहीं झुक गये
 
हमारी आँखों में तैरते रहे
 
जन्नत के नखलिस्तान
 
हम थे चलते फिरते
 
दरख्तों के काफिले
 
पर अब अन्दर से
 
गये हैं टूट
अय, दुनिया के लोगो!
 
 
हमें तहेदिल से अपनाओ!
 
इस आजाद मानवीय पृथ्वी पर
 
हम आज भी हैं अभ्यागत
 
अपने खानाबदोश इतिहास के साथ
 
हमारे कुछ जाँबाज लोग
 
ईश्वर के नाम पर
 
हो रहे लामबन्द
 
दे रहे अनागत को धमकी
 
और तुम बाँट रहे हो
 
हमें सरहदों में
पर
 
अपने को जमा-मनफी करते-करते
 
अब थक गये हैं हम
 
हमारा अपना है धर्माचार
 
अपनी तहजीब
 
अपना ईश्वर
 
अपने मसीहा
 
अपने पयगम्बर
 
इन्हें हमने नरक में भी
 
रक्खा है याद
 
बार-बार हम
 
उनसे करते रहे फरियाद
 
कि हम रहें
 
तुम्हें भी सहें
 
पर, न भूलें कभी
 
अपनी पहचान
 
हमें चाहिए एक देश
 
इस जमीन पर
 
तुम जिसे कहते हो
 
अजरा-अमरा पृथ्वी।
</poem>
Mover, Uploader
2,672
edits