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घर / तुलसी रमण

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<poem>
इस दुनिया में
मेरे हिस्से की
वह एक औरत
पकड़ाती रोटियों की पोटली
सूरज की पहली किरण के साथ
विदा ही लेता हूं
दिन-भर के लिए
बिवाइयां गिन-गिन
दिन की सुरंग से गुजर
शाम के अंधेरे में
वह देहरी पर खड़ी करती है
इंतजार आटे की पोटली और
अपने हिस्से के
इस आदमी का
भूख लगी है, माँ !
पेट बजाते पुकारते
पाँच मासूम स्वर
तब्दील होते
पाँच रोटियों में
जीवन के अंधेरे में
साधे गए
इन पांच स्वरों में
शामिल होता
माँ का सिसकता स्वर
दिन की सीढ़ियों से लुढ़कता
धीरे-धीरे
चीखता कराहता
मेरा सातवां स्वर-
क्या यही है घर ?
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