भारतेंदु जी को काव्य-प्रतिभा अपने पिता से विरासत के रूप में मिली थी। उन्होंने पांच वर्ष की अवस्था में ही निम्नलिखित दोहा बनाकर अपने पिता को सुनाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया-
लै ब्योढ़ा ठाढ़े भए श्री अनिरुध्द सुजान।
वाणा सुर की सेन को हनन लगे भगवान।।