(यह कविता सन 1934 में लिखी गई थी, जब दिनकर जी सरकारी नौकरी में थे। राष्ट्रीय-क्रान्तिकारी कविता लिखने के कारण अंग्रेज़ी सरकार बार-बार उनका तबादला कर देती थी। हालाँकि सरकारी नौकरी उन्हें पसन्द नहीं थी। सन 1935 में बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में उन्होंने इसकी चर्चा की है- "इस एक वर्ष की अवधि में सरकारी नौकरी या गुलामी की वेदना इस तीव्रता से कभी नहीं चुभी थी।" लेकिन नौकरी कवि की मज़बूरी थी। अपने बड़े और संयुक्त परिवार में सर्वधिक शिक्षित होने के कारण सबकी आजीविका की ज़िम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर थी। बहरहाल सन 1934 में 'एक पत्र' शीर्षक से प्रकाशित यह कविता उनके अब तक छपे-अनछपे संकलनों में संग्रहीत नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है- यह कविता पटना से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका 'नवशक्ति' में प्रकाशित हुई थी। पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड, के कविता कोश के सहयोगी
'''रवि रंजन''' ने पत्रिका की वह दुर्लभ प्रति खोज कर इसे हिन्दी संसार को उपलब्ध कराया है। इस पत्रिका के यशस्वी सम्पादक श्री देवव्रत थे जो कभी गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ 'प्रताप' के सम्पादक मंदल मंडल में थे।)
</poem>