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{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
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<poem>

अब मैं लौट आया हूँ
और पतझर पत्तियों को कुतर रहा है
तेज़ हवाओं के बीच
मेरी खामोश वापसी
फरवरी के दरवाजों पर
कितनी हलकी थपथपाहट है,

जनवरी की नदी में
बर्फ़ जमी हुई थी
और बर्फ़ पर मेरी परछाईं
नंगे पैर दौड़ रही थी,

मैं बहुत दूर था
बचता हुआ अनुपस्थित
फिर भी परछाईं से बंधा
घिसटता रहा बर्फ़ पर...

मैंने किसको बचाया
या
नष्ट किया
अब अफ़वाहों के बीच कहना असंभव है

पर मैं हूँ लौटा हुआ
नहीं जानता कौन जीता कौन हारा
वसंत के दर्पण में
नवम्बर का चेहरा कभी नहीं दिखता
मैं नवम्बर का चेहरा हूँ,फरवरी में
और फरवरी पत्तियों को कुतर रही है.

</poem>
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