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{{KKRachna
|रचनाकार=चन्द्रकान्त देवताले
|संग्रह=लकड़बग्घा हँस रहा है / चन्द्रकान्त देवताले
}}
<poem>

तुम मुझसे पूछते हो
मैं तुमसे पूछता हूँ
सुबह हो जाने के बाद
क्या सचमुच सुबह हो गयी है

भय से चाकू ने
हादसे की नदी में डुबो दिया है
समय की तमाम ठोस घटनाओं को
ताप्ती का तट, सतपुड़ा की चट्टानें,
इतिहास के हाथी-घोड़े
कवितायेँ मुक्तिबोध की
ये सब बँधी हुई मुट्ठी के पास
क्या एक तिनका तक नहीं बनते

</poem>
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