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भय / मोहन साहिल

3 bytes added, 02:05, 19 जनवरी 2009
पहाड़ की कोई पसली जब टूटकर
ढलानो से लुढ़कती चली जाती है
आँखें बंद कर लेता हूं हूँ
जब कोई देवदार
औंधे मुंह मुँह गिरता है
राजमार्ग अवरुद्ध हो जाता है
स्क्रीन पर दिखाए जाते हैं
कैंसर होने से आगाह करता है
बीड़ी न पीने को कहता है
बस -अड्डे के बोर्ड पर लिखा है ही रहता है एडस का कोई ईलाज इलाज नहीं
ग्रहण न करें बिना जाँच
किसी का ख़ून
सुनो मित्र!
तुम बताओ
इतनी चेतावनिओं चेतावनियों के बीच जीना
क्या आसान है?
</poem>
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